Monday 17 February 2020

'जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने'

खय्याम

- एकता शर्मा 

   संगीत की दुनिया में मोहम्मद जहूर हाशमी उर्फ़ खय्याम किसी परिचय के मोहताज कभी नहीं रहे! 'कभी-कभी' और 'उमराव जान' जैसी फिल्मों में कालजयी संगीत देकर खय्याम ने अपनी अलग पहचान बनाई थी! आज भी इन फिल्मों के गीतों को पसंद किया जाता है। जबकि, इस संगीतकार को मनहूस कहने वाले भी कम नहीं थे। ऐसे लोगों का कहना था कि खय्याम के गीत तो पसंद किए जाते हैं, पर उनके संगीत वाली फ़िल्में जुबली नहीं मनाती! लेकिन, 'कभी-कभी' ने इस भ्रम को भी तोड़ दिया।  
    खय्याम ने संगीत की दुनिया में 17 साल की उम्र में अपना करियर लुधियाना से शुरू किया था। वे छुपकर फ़िल्में देखा करते थे और उनकी इच्छा कलाकार बनने की थी। इस वजह से उनके परिवार ने उन्हें घर से निकाल दिया था। लेकिन, बाद में उनकी रूचि संगीत में बढ़ी और उन्होंने इसी विधा को करियर बनाना चाहा। शुरूआती सफलता के बाद उन्हें पहला बड़ा ब्रेक 'उमराव जान' से मिला! इस फिल्म के गाने आज भी लोगों के दिलों में जगह बनाए हैं। उन्हें इस फिल्म के बेहतरीन संगीत के लिए नेशनल और फिल्मफेयर अवॉर्ड के साथ ही कई पुरस्कार मिले। 'उमराव जान' के बाद बाज़ार, कभी-कभी, नूरी, त्रिशूल और 'रजिया सुल्तान' जैसी फ़िल्मों के गीत भी उन्होंने रचे। उनके संगीतबद्ध किए गैर-फिल्मी गानों को भी काफी पसंद किया गया। उन्होंने मीना कुमारी की एलबम जिसमें उन्होंने कविताएं गाई थीं, उसके लिए भी संगीत दिया था। खय्याम को पहली फिल्म 'हीर रांझा' मिली थी। लेकिन, उन्हें पहचान मोहम्मद रफ़ी के गीत 'अकेले में वह घबराते तो होंगे' से मिली। बाद में 'शोला और शबनम' ने उन्हें बतौर संगीतकार स्थापित कर दिया।
   जब खय्याम को 'उमराव जान' में संगीत देने का मौका मिला तो उनके सामने कमाल अमरोही की 'पाकीज़ा' थी, जो अपने समय की जबर्दस्त कामयाब फिल्म थी। इसका संगीत गुलाम मोहम्मद ने दिया था। 'उमराव जान' और 'पाकीजा' की पृष्ठभूमि एक सी होने से वे असमंजस में थे कि वे अपनी कोशिश में कामयाब होंगे या नहीं! 'उमराव जान' के संगीत को खास बनाने के लिए उन्होंने इतिहास भी पढ़ा और उस समय के संगीत की जानकारी हांसिल की। अंततः मेहनत रंग लाई और 1982 में आई मुज़फ़्फ़र अली की 'उमराव जान' ने व्यावसायिक और संगीत की सफलता के झंडे गाड़ दिए। 'जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने' जैसा गीत आज भी गुनगुनाया जाता है। ख़य्याम ने अपनी कामयाबी का श्रेय फिल्म की नायिका रेखा को भी देते हुए कहा था कि उन्होंने मेरे संगीत में जान दाल दी! उनका अभिनय देखकर मुझे तो यही लगा था कि रेखा ही पिछले जन्म में उमराव जान थी। 
   फ़िल्मी दुनिया में एक भ्रम फैला था कि खय्याम के संगीत वाली फिल्मों के गाने तो हिट हुए, लेकिन फिल्मों ने कभी सिल्वर जुबली भी नहीं मनाई! 'कभी-कभी' से पहले यश चोपड़ा को भी लोगों ने यही बात याद दिलाई थी। सभी उन्हें मेरे साथ काम करने के लिए मना कर रहे थे। उन्होंने खय्याम से कहा भी था कि इंडस्ट्री में कई लोग कहते हैं कि खय्याम बहुत बदकिस्मत आदमी हैं। इसके बावजूद यश चोपड़ा ने 'कभी-कभी' का संगीत देने का चांस मिला और उस फिल्म ने गोल्डन जुबली मनाकर आलोचकों का मुंह बंद कर दिया था। खय्याम उन संगीतकारों में रहे जिन्होंने कभी ज्यादा काम करने का लोभ नहीं पाला! उन्होंने कम लेकिन बेहतरीन काम किया। उस दौर के कई बड़े फिल्मकारों ने इसीलिए उन्हें पसंद भी किया।  
  खय्याम पंजाबी थे, इसलिए उन्होंने अपने संगीत में पंजाबी लोकसंगीत का अच्छा इस्तेमाल किया। उस दौर में नौशाद के अलावा खय्याम ही ऐसे  संगीतकारों थे, जिन्हें शास्त्रीय रागों पर संगीत रचने में महारत हांसिल थी। खय्याम ने अपने छह दशक के करियर में 30-35 से ज्यादा फिल्में नहीं की।    मुकेश का गाये 'फिर सुबह होगी' के गीत 'वो सुबह कभी तो आएगी' ने उस ज़माने में कमाल कर दिया था। ये उस साल की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में एक थी। इस फिल्म के बाद भी खय्याम और साहिर लुधियानवी की जोड़ी ने एक साथ फिल्मों के लिए काम किया। 80 के दशक में आई 'रजिया सुल्तान' में लता मंगेशकर का गाया 'ऐ दिले नादान' गाना लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा था। इसी दशक में उन्होंने 'उमराव जान' का भी संगीत दिया, जो संगीत इतिहास की अहम फिल्मों में से एक है। 
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