Thursday 31 May 2018

साहित्य. सिनेमा और बॉक्स ऑफिस


- एकता शर्मा 

   हिंदी सिनेमा की अपनी दुनिया है। यहाँ समय के साथ कहानियों का ट्रेंड भी बदलता रहता है। कहानियों के बगैर फ़िल्में नहीं बन सकती! पर, जरुरी नहीं कि वे नामचीन कथाकारों या उपन्यासकारों ने लिखी हो! तो फिर सवाल उठता है कि जब फ़िल्मी कहानियां लिखने वाली गंभीर साहित्यिक व्यक्ति नहीं होते तो फिर उनपर करोड़ों के फिल्मकार दांव कैसे लगा देते हैं। सवाल लाख टके का है, पर ये जान लेना भी जरुरी है कि फिल्मों की कहानी लिखने वाले और साहित्यकारों में फर्क है। फ़िल्मी कहानियां दर्शकों की पसंद को ध्यान में रखते हुए गढ़ी जाती है, जबकि गंभीर साहित्यकार बिकाऊ कथा नहीं लिखता! बल्कि, जो लिखता है वो उसके नाम से बिक जाता है।    
  साहित्य और सिनेमा पर बरसों से बहस चल रही है। मुद्दा ये है कि बड़े कथाकार फिल्मों में सफल क्यों नहीं हो पाते? साहित्य जगत में जिनकी रचनाओं को पसंद किया जाता है, उनपर बनी फ़िल्में फ्लॉप क्यों हो जाती है? लोगों को इन लेखकों की लिखी कहानियाँ और उपन्यास तो पसंद आते हैं, पर उन्हीं कहानियों पर जब फिल्म बनती है तो उसे दर्शक नहीं मिलते!  फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर 'तीसरी कसम' बनी और फ्लाप रहीं।  प्रेमचंद की तीन कहानियों पर फिल्में बनी, लेकिन वे भी सफल नहीं हो सकीं। सत्यजित राय की पहली हिंदी फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' जरूर सफल रही, जो प्रेमचंद  कहानी पर आधारित थी।
   'तीसरी कसम' को भले ही श्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। लेकिन, ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल हुई थी, जिसके कर्ज के बोझ तले निर्माता शैलेंद्र की तनाव में मौत हो गई! कई प्रशंसित कहानियाँ लिख चुके कहानीकार राजेंद्र सिंह बेदी की किताब 'एक चादर मैली सी' पर भी जब फिल्म बनी तो उसे दर्शकों ने नकार दिया। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' पर बनी फिल्म भी नहीं चली! आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास परबीआर चोपड़ा ने 'धर्मपुत्र' बनाई जो नहीं चली!  
  सत्तर के दशक में जरूर बांग्ला साहित्य पर कुछ फ़िल्में बनी जो चली भी! बासु चटर्जी बांग्ला भाषी थे लेकिन उन्होंने राजेंद्र यादव के उपन्यास 'सारा आकाश' पर फिल्म बनाई जो नहीं चली! लेकिन, मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच' पर 'रजनीगंधा' बनाई तो वह सफल हुई। हिंदी साहित्यकारों का फिल्मों में असर 70 के दशक में ही ज्यादा नजर आया। इस दौर को लाने का श्रेय कथाकार कमलेश्वर को दिया जाना चाहिए। उपेंद्रनाथ अश्क और अमृतलाल नागर के बाद कमलेश्वर ही वह साहित्यकार थे, जिन्होंने सिनेमा की भाषा और दर्शकों की मानसिकता को समझा। बड़े टेलीविजन सीरियल के बाद वे फिल्मों में भी लंबे समय तक टिके रहे। 
  गुलजार ने कमलेश्वर की कथा पर जब 'आंधी' और 'मौसम' बनाई तो देखने वालों का ट्रेंड ही बदल गया। इसके लिए गुलजार भी जिन्हें श्रेय दिया जा सकता है। उन्होंने कहानी की संवेदना को गहराई से समझा और दोनों फिल्मों की पटकथा, संवाद और गीत खुद ही लिखे। कमलेश्वर के उपन्यास 'एक सड़क सत्तावन गलियाँ' और 'डाक बांग्ला' पर क्रमशः 'बदनाम बस्ती' (1971) और 'डाक बांग्ला' (1974) बनीं लेकिन सफल नहीं हो सकीं।  लेकिन,अब हिंदी फिल्मों का परिदृश्य बदल गया है। हर तरह की फिल्में बन रही हैं। छोटे बजट की रोचक विषयों वाली फिल्मों का बाजार आकार लेने लगा है। अभी बायोपिक फिल्में बनाने पर ज्यादा ध्यान है। आश्चर्य नहीं कि भविष्य में हिंदी साहित्य को लेकर फिल्मों में कुछ नए प्रयोग होने लगें! 
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