Sunday 15 December 2019

कुपोषित आदिवासी बच्चों के लिए सरकार की अधूरी तैयारी!

- एकता शर्मा

   मध्यप्रदेश के तीन प्रमुख आदिवासी क्षेत्रों धार, झाबुआ और आलीराजपुर आलीराजपुर में बाल कुपोषण ऐसा कलंक बन गया है, जिसे मिटाने के लिए जितना सरकारी प्रयास हो रहा है वह उतना ही बढ़ रहा है। प्रदेश सरकार ने महिला एवं बाल विकास विभाग को 2209 करोड़ 49 लाख रुपए का बजट मुहैया जाता है। लेकिन, इन पिछड़े जिलों में जिस तेजी से कुपोषण फैल रहा है, उससे सरकार के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी आदिवासियों, दलितों और समाज के अन्य वंचित समुदाय में नवजात शिशुओं से लेकर पांच वर्ष तक की आयु के 60% बच्चे कुपोषण की समस्या से ग्रस्त होने के कारण कमज़ोर और बीमार हैं। इनमें से कई बच्चों की असमय मौत हो जाती है।  
   सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है। इनमें झाबुआ, आलीराजपुर, और धार जिलों में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या 7% से 15% तक रही। इन ताजे परिणामों से भी साबित होता है, कि मध्यप्रदेश में बच्चों में कुपोषण की स्थिति काफी खतरनाक स्थिति में हैं। इस मामले को लेकर प्रदेश सरकार और प्रशासनिक अमला कितना गंभीर है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में 'समेकित बाल विकास सेवाओं' के लिए पूरे राज्य में जहाँ 1 लाख 46 हजार आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत है, वहां राज्य में केवल 70 हजार आंगनबाड़ी केंद्र ही संचालित हो रहे हैं। जो कि राज्य के 76% बच्चों को ही अपनी सेवाएं दे पा रही हैं, जबकि एक चौथाई बच्चे अभी भी बाल कल्याण सेवाओं से पूरी तरह से वंचित हैं। प्रदेश की केवल 13 हजार आदिवासी बस्तियों में 'समेकित बाल विकास सेवा' का लाभ पहुंच रहा है, लेकिन करीब 4200 आदिवासी बस्तियां इस सेवा से आज भी वंचित हैं।
   आदिवासी इलाकों में वहां के रहवासियों के लिए चलाई जा रही अधिकांश योजनाएं अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं दे पा रही! जबकि, शासकीय दस्तावेज में आदिवासी समुदाय के पोषण के नाम पर जो बडी धनराशि खर्च करना बताया जा रहा है! लेकिन, इसकी हकीकत आदिवासी बहुल गाँवो में देखी जा सकती है। आदिवासी समुदाय में बच्चों के पोषण की स्थिति जितनी सोचनीय है, वो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इसके अलावा दलित और वंचित समाज में भी हालत चिंताजनक ही कही जाएगी। जगंल में रहने वाले आदिवासी और शहरों में बसे दलित और वंचित लोग अपने बच्चों का ठीक से पेट भी नहीं भर पा रहे, तो वो उन्हें पोषण आहार कैसे देंगे, ये सोचा जा सकता है। ये लोग जीवन यापन के लिए जिस तरह की विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे हैं, उनमे सबसे ज्यादा ख़राब स्थिति खाद्यान्न को लेकर है! केंद्र सरकार ने 'खाद्यान्न सुरक्षा कानून' लागू किया है, पर उसका भी समुचित लाभ समाज के इस वर्ग को नहीं मिल पा रहा। खाद्यान्न वितरण प्रणाली की दोषपूर्ण व्यवस्था आदिवासी, दलित और वंचित समाज के बच्चों के कुपोषण और खाद्यान्न सुरक्षा में सबसे बड़ी खामी मानी जाएगी।  
   सरकार आदिवासी समाज को जंगल से बेदखल करने में ज्यादा रूचि ले रही है, उतनी उनकी या उनके बच्चों की खाद्यान्न व्यवस्था में नहीं लेती, इसका क्या कारण है? इसी का नतीजा है कि मध्यप्रदेश में जहाँ भी आदिवासी बहुलता से बसे हैं, वहां उनके बच्चे भूख, कुपोषण और बीमारियों से लडते हुए अपनी जिदंगी खत्म कर रहे हैं। सरकारी उपेक्षा ने आदिवासी समुदाय के जीवन को और अधिक विकट बना दिया है। भूख और कुपोषण के कारण मध्यप्रदेश में पिछले कुछ सालों में छह वर्ष से कम उम्र के 55% बच्चों की मौत हुई! 'रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर फार ट्राईबल' के एक अध्ययन के अनुसार आदिवासियों के 93.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 58 प्रतिशत से अधिक महिलाएं एनीमिया (रक्तअल्पता) सहित विभिन्न बीमारियों की शिकार हैं, इस कारण उनके नवजात बच्चे कुपोषित जन्म लेते हैं। यही कुपोषण आदिवासियों के नवजात बच्चों की सर्वाधिक मौत का बडा कारण बनता है। जब माँ को ही पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिलेगा तो बच्चे का पोषण कैसे होगा? यही वजह है कि नवजात बच्चे कुपोषित होते हैं और समय पर उपचार न मिलने के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है।
 मध्यप्रदेश में शिशु मृत्यु दर 76 प्रति हजार है। जबकि, आदिवासियों में शिशु मृत्युदर 84% से ज्यादा है। आदिवासियों के कल्याण का दावा करने वाले सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों का ध्यान उनके लिए आवंटित बजट को अलग-अलग योजनाओं के नाम पर खर्च करने में रहता है! यह देखने में ध्यान नहीं रहता कि इन योजनाओं से आदिवासी समुदाय को कितना लाभ हुआ अथवा हो रहा है! एक-दो आदिवासियों को मिला लाभ सफलता की कहानी बनाकर प्रचारित कर दिया जाता है। जबकि, आदिवासी समुदाय के बाकी लोग मुश्किलों के बीच जीने की राह ढूढतें रहते है। आदिवासी विकास के नाम पर भारी धनराशि हर साल अनियमितताओं की भेंट चढ जाती है। उसका परिणाम यह है कि मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय में कुपोषण ओैर मातृ एवं शिशु मृत्यु दर बढ रही है।
   इस समुदाय के सामने जीवित रहने का संकट उत्पन्न हो गया है। पर्याप्त पौष्टिक भोजन का अभाव में जीतोड मेहनत करने वाला आदिवासी समुदाय अपने परिवार के लिए भरपेट भोजन तक का इंतजाम नहीं कर पाता। महिलाएं बीमार होकर बीमार बच्चों को जन्म दे रही है। समय पर ठीक उपचार नहीं मिलने से माँ और बच्चे बेमौत मर रहे है। ऐसे हालात सरकार द्वारा चलाए जा रहे पोषण पुनर्वास केन्द्रों और आगंनवाडी केन्दों की कार्यप्रणाली पर सवाल खडे करती है। कुपोषण को दूर करने के लिए सरकार की ओर से जो पोषण आहार उपलब्ध कराया जाता है, वह सभी बच्चों को नियमित नहीं मिल पा रहा है। महिला बाल विकास अधिकारी द्वारा पोषण आहार बेचे जाने के मामले भी सामने आए। हैं जब पोषण आहार बाँटने वाले अधिकारी ही बेचने का कारोबार करने लगे तो आदिवासी और दलित, वंचित बच्चों में कुपोषण ओर उनकी मौत का सिलसिला कैसे रूकेगा? यही कारण है कि मध्यप्रदेश में करीब 4 हजार करोड रूपए खर्च किए जाने के बाद भी कुपोषण को सभी जिलों से पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सका! मध्यप्रदेश सरकार अपने सालाना बजट में 'आदिवासी उपयोजना' के तहत 33% राशि का प्रावधान करती है। आंगनवाड़ियां, जननी सुरक्षा योजनाएं तथा स्कूलों में मध्यान्ह भोजन जैसी योजनाएं चलाई जा रही है। इसके बावजूद कुपोषण की समस्या से निजात नहीं मिल सका है।      
  आदिवासी जंगल में निवास करने वाला समाज है। इसका इतिहास बहुत पुराना है। यह प्राचीनकाल से ही जंगलों में निवास करते हुए प्रकृति से मिलने वाले खाद्य पदार्थ जैसे तेंदू, महुआ, गोंद, भाजी, बेर, सहजन आदि खाकर अपना जीवनयापन करता रहा है। इन खाद्य पदार्थो से आदिवासी समुदाय को पर्याप्त पोषक आहार मिल जाते थे! इसलिए पहले उनके सामने कुपोषण का सकंट नहीं था और न उनको खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार या समाज पर आश्रित रहना होता था। आदिवासी समुदाय ने प्रकृति,जगंल से अपनी खाद्य संबंधी आवश्कताओं की पूर्ति की! लेकिन, जब से इन्हें जंगल से बेदखल करने का सिलसिला शुरू हुआ, तब से ही इस समुदाय के सामने जीवन बचाने का संकट खड़ा हो गया है। प्राकृतिक माहौल में रहने के अभ्यस्त आदिवासी जनजाति के लोग जंगल से दूर होने के कारण परम्परागत खाद्यान्न से भी वंचित हो गए। इसका नुकसान उन्हें कुपोषण के रूप में भुगतना पड रहा है। इस समुदाय के अधिकांश लोग अशिक्षित होने के कारण लगातार पोषण और उपेक्षा के शिकार हो रहे है। बेरोजगारी, पोषण, भूख, कुपोषण इस समुदाय की पहचान बन गया। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आदिवासी आज भी सरकार से उम्मीद लगाए बैठा है। ऐसे में हाशिए पर खडे और उपेक्षा झेल रहे आदिवासी समुदाय को सरकार के सही प्रयासों की जरूरत है।
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