Saturday 15 July 2017

अब सिर्फ मोहब्बत से फिल्म नहीं चलती!

- एकता शर्मा  


  एक समय था जब हिंदी फिल्मों का परदा मोहब्बत से सराबोर था। ब्लैक एंड व्हॉइट के ज़माने से परदे के रंगीन होने तक मोहब्बत फिल्मों की आवश्यक विषय वस्तु रहा! लेकिन, अब तेजी से फ़िल्मी कथानकों से मोहब्बत हाशिए पर आता जा रहा है। शायद पहली बार सिनेमा को अहसास हुआ कि जीवन में मोहब्बत तो हो सकती है, लेकिन मोहब्बत के लिए जीवन नहीं हो सकता। हिन्दी सिनेमा के सामने अब दर्शकों की जो नई पीढ़ी है, उसके लिए प्रेम कथाएं आकर्षण केंद्र नहीं हैं। जो नए निर्देशक इस नई पीढ़ी से संवाद बना पा रहे हैं, उनकी प्राथमिकताएं भी अब प्रेम कहानियाँ नहीं रही। बीते सालों में जैसे-जैसे सिनेमा यथार्थ की ओर कदम बढ़ाता गया, उसमें मोहब्बत की मात्रा घटती गई। कोई मांझी-द माउंटेन मैन, दंगल, सरबजीत या एमएस धोनी बनाता है, जहाँ मोहब्बत महज जीवन के एक अंश के रूप में ही है।
  आमिर खान की दंगल, सलमान खान की सुलतान और शाहरुख खान की ‘डियर जिंदगी’ में भी मोहब्बत के लिए कोई जगह नहीं है। शाहरुख के लिए इस तरह की भूमिकाओं के चयन के पीछे का कारण उम्र का दबाव बताया जा सकता है। लेकिन, यह धारणा तब गलत साबित हो जाती है जब सिर्फ शाहरुख की फिल्मों में नहीं बल्कि रिलीज हुई ज्यादातर हिन्दी फिल्मों में यह ट्रेंड दिखाई देता है। ‘सुल्तान’ में सलमान खान और अनुष्का शर्मा हैं। दोनों के बीच एक मीठी सी परंपरागत तकरार वाली प्रेमकथा भी है। लेकिन, बस एक आधार तैयार होने के लिए। फिल्म एक व्यक्ति की जिद और स्वाभिमान की कथा में तब्दील हो जाती है। पूरी फिल्म में कुछ याद रहता है तो पहलवानी के दांवपेंच और केबल टीवी ऑपरेटर का विश्वविख्यात पहलवान बनने का संघर्ष। 'दंगल' में ऐसी ही जिद आमिर खान की रही।
  ‘एयरलिफ्ट’ में युद्ध भूमि में फंसे अपने नागरिकों को निकालने की जद्दोजहद यहां इतने सशक्त रूप में प्रदर्शित की गई थी कि पति-पत्नी के प्रेम को अलग से रेखांकित करने की निर्देशक राजा कृष्ण मेनन को जरूरत ही महसूस नहीं हुई। दर्शकों को इस फिल्म में नायक-नायिका के संबंध की बस सूचना भर मिलती है। ‘साला खड़ूस’ में कोच और खिलाड़ी के बीच प्रेम की इतनी क्षीण रेखा बन पाती है कि अंत तक आते-आते दर्शकों के लिए वह महत्वहीन होकर रह जाती है। जय गंगाजल, अलीगढ़, घायल वंस अगेन, नीरजा, उड़ता पंजाब, अकीरा और ‘पिंक’ जैसी कई फिल्मों ने तो मोहब्बत की परंपरागत चर्चा की जरूरत भी नहीं समझी। अक्षय कुमार की चर्चित फिल्म ‘रुस्तम’ में मोहब्बत कम और धोखे अधिक दिखे।
  जब हिंदी सिनेमा ने मोहब्बत का पूरे ब्यौरों के सात बयान करने की जरूरत समझी तो उसे ‘मिरजिया’ और ‘मोहन जो दाड़ो’ की तरह पीरियड में जाना पड़ा! जबकि, परंपरागत प्रेमकथा के चक्रव्यूह में फंसी ‘की और का सनम तेरी कसम, सनम रे, तुम बिन-2, रॉक स्टार-2, ऐ दिल है मुश्किल और ‘बेफिक्रे’ को दर्शकों ने नकार दिया। मराठी में बनी सबसे चर्चित फिल्म ‘सैराट’ को भी प्रेमकथा नहीं कहा जा सकता। शुरुआती दृश्यों में तरुण प्रेम की उथली सी कथा को बयान करती यह कहानी कब परिवार, रिश्ते, समाज, शहर, जाति, वर्ग, राजनीति की गहराइयों में खो जाती है इसका पता ही नहीं चलता।
 शाहरुख खान की ‘रईस’ और ऋतिक रोशन की ‘काबिल’ सलमान खान की सुपर फ्लॉप फिल्म 'ट्यूबलाइट' में भी मोहब्बत नदारद है। ‘रईस’ गुजरात के माफिया अब्दुल लतीफ की बायोपिक मानी जा रही है, जबकि ‘काबिल’ में एक नेत्रहीन के संघर्ष को दिखाया गया है। अक्षय कुमार की ‘जॉली एलएलबी-2’ और शाहिद कपूर की ‘रंगून’ में तो एक अलग कथाभूमि की उम्मीद की ही जा सकती है। अब हम आश्वस्त रह सकते हैं कि हिन्दी सिनेमा के लिए मुद्दे और नएपन के दबाव से बाहर निकलना आसान होगा।
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