Sunday 15 October 2017

सिनेमा के परदे पर कहाँ है गाँधी?

 - एकता शर्मा 

  हिंदी फिल्मों में राजनीति और नेताओं का जब भी जिक्र होता है, नकारात्मक ही होता है। क्योंकि, फिल्मों में ये किरदार सामान्यतः भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा होते हैं। लेकिन, देश के सच्‍चे नेता के रूप में हमेशा गाँधीजी को ही हमारी फिल्‍मों में दिखाया गया। अभी तक महात्मा गाँधी से जुड़कर जो भी फ़िल्में बनी, उसमे गाँधी को कई प्रतिबिम्बों में प्रदर्शित किया गया। वैसे तो महात्मा गाँधी पर अब तक अंगुलियों पर गिनी जा सकने वाली ही फ़िल्में बनी हैं। लेकिन, जितनी सफलता रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' को मिली, उतनी शायद किसी दूसरी फिल्म को नहीं। इसमें बेन किंग्सले ने गाँधीजी का किरदार   निभाया था। इस फिल्म ने 8 ऑस्कर और सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए 'गोल्डन ग्लोब' अवॉर्ड   भी जीता था। 
  अपने जीवनकाल में महात्मा गांधी ने सिर्फ दो फिल्में देखीं थी। पहली फिल्म उन्होंने 1943 में 'मिशन टू मॉस्को' देखी थी। इसके बाद भारत में बनी फिल्म 'रामराज्य' देखी थी। इसके बाद उन्होंने कोई फिल्म नहीं देखी। महात्मा गाँधी का फिल्मों से नाता कम ही था। लेकिन, हमारे फिल्मकारों ने भी गाँधी विचारधारा को प्रचारित करने में बहुत कंजूसी की। गाँधीजी को जनमानस का नेता माना जाता था। ये भी कहा जाता है उनसे अच्छा 'मास कम्युनिकेटर' यानी जनता को उनकी भाषा में अपनी बात समझाने वाला आजतक कोई नहीं हुआ! लेकिन, फिर भी फिल्मकारों ने गाँधीजी के साथ न्याय नहीं किया। उनपर बानी सबसे सफल फिल्म भी विदेशी निर्माता ने बनाई और गांधीजी का किरदार भी विदेशी एक्टर ने निभाया। 
  गाँधीजी के प्रति फिल्मकारों की उदासीनता से दुखी होकर एक बार निर्देशक महेश भट्ट ने कहा था कि 'बहुत कम लोग हैं, जो गांधीजी को एक अहसास की तरह महसूस करते हैं। क्या कारण था कि विदेशी निर्देशक ने विदेशी कलाकार को मुख्य किरदार में लेकर 'गाँधी' जैसी शानदार फिल्म बना दी, और गांधी के देश के लोग उस टक्कर की फिल्म आजतक नहीं बना पाए? सिनेमा की दुनिया में जब भी महात्मा गाँधी का जिक्र आया है तो बेन किंग्सले और रिचर्ड एटनबरो की 'गाँधी' से बात शुरू होकर 'लगे रहो मुन्ना भाई' पर ख़तम हो जाती है। राजकुमार हीरानी की संजय दत्त और अरशद वारसी अभिनीत इस फिल्म ने गांधीवाद को नया नजरिया जरूर दिया है। 
  फिल्मों के अलावा गाँधीजी पर कई डॉक्युमेंट्री भी बनी। 1963 में गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की मानसिकता पर जेएस कश्यप ने 'नाइन आवर्स टू रामा' बनाई थी। 1968 में 'महात्मा: लाइफ आफ गाँधी' बनी और फिर आई 'महात्मा गाँधी : ट्वेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट।' 1982 में बनी 'गाँधी' में बेन किंगस्‍ले ने उन्‍हें जीवंत कर दिया था। 'गांधी, माय फादर' 2007 में आई इस फिल्म को अनिल कपूर ने बनाया था।  यह फिल्‍म गाँधीजी और उनके बेटे हरिलाल गाँधी के परेशानी वाले रिश्तों पर आधारित थी। 2000 में आई फिल्म 'हे राम' देश के विभाजन और नाथुराम गोडसे द्वारा गांधी की हत्‍या पर आधारित है। 'लगे रहो मुन्‍ना भाई' राजकुमार हिरानी और विधु विनोद चोपड़ा की फिल्‍म थी, जिसने गांधीगिरी का नया टर्म जरूर इजाद किया। 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' में अनुपम खेर ने एक रिटायर्ड हिंदी प्रोफेसर उत्‍तम चौधरी का किरदार निभाया। फिल्म में प्रोफ़ेसर को अजीब सा पागलपन छा जाता है। वो ये मानने लगता है कि गाँधीजी का हत्यारा वही है। देखा जाए तो अभी भी सिनेमा के परदे पर गाँधी को जीवंत किया जा सकता है। पर, कोई फिल्मकार हिम्मत तो करे! क्योंकि, गाँधी एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा है और विचार कभी नहीं मरते। कोई नाथूराम गोडसे भी विचारों की हत्या नहीं कर सकता। 
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