Monday 12 June 2017

कला और कमर्शियल सिनेमा के बीच की गली

 - एकता शर्मा 

  सौ साल से ज्यादा वक़्त हो गया हिंदी सिनेमा को! इस दौर में बहुत कुछ बदला। लेकिन, जो नहीं बदला, वो है कमर्शियल फिल्मों का बोलबाला। दर्शकों को रिझाने के लिए कमर्शियल फिल्मों में हमेशा नए-नए फॉर्मूले इस्तेमाल किए जाते रहे। पर, साथ में कला फ़िल्में भी बनती रही हैं, जिन्हें पसंद करने वाले दर्शक कुछ ख़ास ही थे। पिछले कुछ सालों से सिनेमा का एक नया रूप देखने को मिला। इसे न तो कमर्शियल कहा जा सकता है और न इन्हें पूरी तरह आर्ट फिल्मों की गिनती में रखा जा सकता है। ये फिल्में रियलिटी के ज्यादा करीब हैं। फिल्म निर्माताओं की एक ऐसी खेप उभरकर सामने आई है जो लीक से अलग हटकर रीयल सिनेमा बनाने में विश्वास करता है।


    द वेडनसडे, मद्रास कैफे, लंच बॉक्स, फंड्री, सिद्धार्थ, अनवर का अजब किस्सा को कला फिल्मों की श्रेणी  रखा जा सकता। ये फिल्में रियलिटी के करीब होते हुए भी आर्ट फिल्में नहीं हैं। समानांतर और कला फिल्में एक खास आयु वर्ग के लोगों द्वारा पसंद की जाती रही हैं। इस तरह की फिल्मों में युवाओं की दिलचस्पी कम होती है। लेकिन, आज का युवा कमर्शियल सिनेमा के अलावा अन्य तरह की फिल्में भी देखना और समझना चाहता है। यथार्थ को लेकर चलने वालीं छोटी बजट की फिल्मों को आज का युवा वर्ग ज्यादा पसंद कर रहा है।
  एक वक़्त ऐसा भी था, जब फिल्मकार नए मुद्दों को फिल्माने से घबराते थे, आज उन पर फिल्में बन रही हैं। राजनीतिक मुद्दे पर आधारित फिल्म ‘मद्रास कैफे’ ने फिल्मकारों के लिए नया कैनवास उपलब्ध कराया है। डॉक्यूमेंट्री की अंदाज वाली इस फिल्म ने बॉलीवुड फिल्मों में एक नया द्वार खोला है। मद्रास कैफे, द वेडनेसडे की सफलता यह बताती है कि संजीदगी से बनाई गई फिल्म चाहे वह डॉक्यूमेंट्री के कलेवर में ही क्यों न हो, दर्शक उसे पसंद करेंगे। आज के नए फिल्मकार बदलती पीढ़ी के स्वाद को पहचान रहे हैं। नई पीढ़ी ज्यादा तार्किक है और उसकी बौद्धिक खुराक बढ़ रही है। वह मसालेदार फिल्में देखना और वैचारिक मसलों पर चर्चा करना चाहती है। उसके लिए फिल्म अब केवल मनोरंजन का साधन नहीं है। फिल्मकार इस चीज को पहचानने लगे हैं।
 जिस तरह की फ़िल्में बन रही है, उनमें जोखिम भी ज्यादा है। लेकिन, फिल्मकारों ने जोखिम लेने का साहस भी दिखाया। इस क्रम में नागराज मंजुले की फिल्म ‘फंड्री’ का उल्लेख जरूरी है। ‘फंड्री’ एक दलित किशोर लड़के की कहानी है जो जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ता है। फिल्म में दलित किशोर जाब्या अपने साथ पढ़ने वाली एक ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करता है। मंजुले ने अपनी इस फिल्म के जरिए जाति व्यवस्था के कुरूप चेहरे को बड़े ही तंज अंदाज में बेनकाब किया है। जबकि रिचि मेहता की फिल्म ‘सिद्धार्थ’ गांव से विस्थापित होकर शहर आए एक परिवार की त्रासदी बयां करती है। विस्थापन वर्तमान समय की एक बड़ी घटना है, जिसके दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहर गवाह हैं। ‘लंच बॉक्स’ और ‘अनवर का अजब किस्सा’ जैसी फिल्में इस नई जोनर को परिभाषित कर रही हैं। दरअसल, ये फ़िल्में न तो कमर्शियल हैं और न पूरी तरह कला फ़िल्में! ये दोनों के बीच की एक गली है, जो कहीं न कहीं वास्तविकता के बहुत करीब है। जब नए ज़माने के दर्शक ये पसंद कर रहे हैं, तो फिल्मकार इस नए फॉर्मूले को क्यों छोड़ें?  
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